उत्तराखंड की धरती को अगर आंदोलनों की धरती कहा जाए तो गलत नहीं होगा। 1921 का कुली बेगार आन्दोलन, 1924 डोला पालकी आंदोलन, 1930 का तिलाड़ी आन्दोलन, 1984 का नशा नहीं रोजगार दो आन्दोलन, 1977 वन आंदोलन, 1994 का उत्तराखंड राज्य प्राप्ति आन्दोलन, ऐसे छोटे बड़े कई आंदोलनों ने यह बात सिद्ध की है कि, यहां की मिट्टी में पैदा हुआ हर इंसान अपने हक की लड़ाई लड़ना जानता है। फिर वो पुरुष समाज का हो या फिर महिला। खासतौर पर यहां की महिलाओं का हमेशा ही सर्वोच्च योगदान इस भूमि के हकों की लड़ाई में रहा है। हमेशा ही दरांतियो वाले हाथों ने आंदोलनों में कुशल योगदान दिया जिसके चलते उत्तराखंड यहां की महिलाओं का ऋणी रहा है। आज हम उत्तराखंड की एक ऐसी साधारण सी महिला के बारे में बात करेंगे जिसने अपने साहसी रूप से एक आन्दोलन का रुख ही बदल लिया से।
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आज से करीब 50 साल पहले उत्तराखंड में एक आंदोलन की शुरुआत हुई थी, जिसे नाम दिया गया था चिपको आंदोलन। इस आंदोलन की अगुवाई चंडीप्रसाद भट्ट और गौरा देवी की ओर से की गई थी और भारत के प्रसिद्ध वन प्रेमी सुंदरलाल बहुगुणा ने आगे इसका नेतृत्व किया। पेड़ों की रक्षा के लिए किया गया एक महत्वपूर्ण आंदोलन जिसमें ग्रामीणों ने पेड़ों को बचाने के लिए अहिंसक विरोध प्रदर्शन किया था। उत्तराखंड का यह एक ऐसा आंदोलन था जिसने सत्ता में बैठी तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को भी हिला कर रख दिया था।
चिपको आंदोलन का इतिहास
वर्ष 1974 में वन विभाग ने जोशीमठ ब्लॉक के रैणी गांव के पास पेंग मुरेंडा जंगल में पेड़ों को काटने के लिए चुना, पहले ही यह इलाका 1970 की भीषण अलकनंदा बाढ़ से बुरी तरह प्रभावित हुआ था। ऋषिकेश के एक ठेकेदार जगमोहन भल्ला को 4.7 लाख रुपये में 680 हेक्टेयर से अधिक जंगल की नीलामी की गई। लेकिन रैणी गांव की महिलाओं ने महिला मंडल की प्रधान गौरा देवी के नेतृत्व में 26 मार्च 1974 को ठेकेदार के मजदूरों को बाहर निकाल दिया। दरअसल, यहां जैसे ही वन विभाग के मजदूर जंगल की तरफ बढ़ने लगे। तो गौरा देवी ने आंदोलन की अगुवाई करते हुए 27 अन्य महिलाओं को अपने साथ लिया और 2400 पेड़ों की कटाई रोकने के प्रयास में जुट गईं। गौरा देवी सहित अन्य महिलाएं पेड़ों को बचाने के लिए उनके साथ चिपक गईं। इनका कहना था कि पेड़ों को काटने से पहले आरी उनके शरीर पर चलेगी। पेड़ों की सुरक्षा के लिए इस गांव की महिलाएं पेड़ों से चिपक गई इसलिए इस आंदोलन को चिपको आन्दोलन कहां जाता है।
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कौन थी गौरा देवी
वर्ष 1925 में लाता गांव में जन्मी गौरा का जीवन बेहद संघर्षपूर्ण था। पुराने रीति रिवाजों के अनुसार, महज 12 वर्ष की उम्र में रैंणी के मेहरबान सिंह के साथ गौरा का विवाह कराया गया। महज 12 वर्ष की आबोध बालिका को इस बात का अंदाजा नहीं था कि उसके साथ क्या हो रहा है और वह भी उसे नियति की रीत समझ कर अपने गृहस्थ जीवन में व्यस्त रहने लगीं।
अकेले कंधों पर आई घर की जिम्मेदारियां
22 साल की उम्र में ही नियति ने इन्हें विधवा का जीवन जीने के लिए मजबूर कर दिया। जिसके बाद ढाई साल के उनके बेटे और बूढ़े सास ससुर के साथ घर की सारी ज़िम्मेदारी गौरा के कंधों पर आ गई। पशुपालन, ऊनी कारोबार तथा खेती के जरिए गौरा ने अपने परिवार का भरण पोषण किया। हजारों मुश्किलों के बीच भी गौरा संघर्ष करती रही और कभी हार न मानने की ठानी। घर की जिम्मेदारियों को पूरा करने के बाद गौरा ने अपना सारा समय कामों में लगा देती थीं। गौरा अपने गाँव के महिला मंगल दल की अध्यक्ष भी बनीं थी जिनके नेतृत्व में उत्तराखंड के प्रसिद्ध चिपको आंदोलन की अगुवाई हुई। जुलाई 1991 में गौरा देवी 66 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह गई। भले ही उत्तराखंड के रैणी गाँव की गौरा देवी का व्यक्तिगत जीवन संघर्षपूर्ण रहा। लेकिन उनके जीवन की कहानी प्रेरक है। उन्होंने जो किया उसे कभी नहीं भुलाया जा सकता इसलिए लोग आज भी उन्हें चिपको वुमन के नाम से जानते हैं।
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