सम्राट चंद्रगुप्त आचार्य चाणक्य का काफी सम्मान करते थे, मगर कहीं उनके मन में श्रेष्ठता की भावना भी घर करने लगी थी। यह बात उनके व्यवहार में जब-तब परोक्ष रूप से झलक जाया करती थी। आचार्य चाणक्य से उनकी यह मनोदशा छिपी नहीं थी। मगर वे सही मौके की तलाश में थे
एक दिन चाणक्य राजा चंद्रगुप्त और महारानी से बात कर रहे थे। इस बातचीत में चंद्रगुप्त ने चाणक्य से कह दिया कि आपका रंग काला है, दूर से तो आप कुरूप ही दिखते हैं। आप गुणवान हैं और अगर रूपवान भी होते तो बहुत अच्छा रहता। मैं आपकी विद्वत्ता, सूझ-बूझ और चातुर्य की दाद देता हूं, परंतु अच्छा होता भगवान ने आपको सुंदर रूप भी दे दिया होता।’ ये बात महारानी को अच्छी नहीं लगी। रानी ने कहा कि सुंदरता से ज्यादा महत्व गुणों का होता है।
चंद्रगुप्त ने कहा कि ठीक आप कोई एक उदाहरण बताकर ये बात साबित कर दीजिए।
चाणक्य ने जान लिया कि सम्राट को अपने सौंदर्य पर घमंड हो गया है और वे सौंदर्य के सामने विद्या को तुच्छ समझने लगे हैं। पर उस समय वह चुप रह गए। थोड़ी देर बाद सम्राट से विदा लेकर अपने आश्रम आ गए। अगले दिन उन्होंने अपने सेवक को बुलाकर कहा, ‘आज दरबार में महाराज के आने से पहले एक मिट्टी का घड़ा और एक सोने का घड़ा रखवा दो। दोनों घड़े शुद्ध जल से भरे होने चाहिए।’ समय से सम्राट आए और दरबार का कामकाज शुरू हुआ।
थोड़ी देर में सम्राट को प्यास लगी तो चाणक्य के आदेशानुसार उन्हें सोने के घड़े का पानी पेश किया गया। पानी पीते ही सम्राट बिफर उटे, ‘यह कैसा पानी दिया है। इतना गरम क्यों है पानी?’ चाणक्य के इशारा करते ही उन्हें मिट्टी के घड़े वाला शीतल जल दिया गया। चाणक्य बोले, महाराज, यह पानी पीकर देखें, क्या यह ठीक है?’ इस बार सम्राट पानी पीकर संतुष्ट हुए।
मगर पूछा कि ‘वह कैसा पानी था और क्यों दिया गया वैसा पानी?’
चाणक्य ने कहा कि महाराज रूप-रंग, सुदंरता सोने के घड़े जैसा है और गुण मिट्टी के घड़े जैसे हैं। गुणों से ही तृप्ति मिलती है और गुणों के सामने सोने के घड़े जैसी सुंदरता महत्वहीन हो जाती है। इस किस्से में चाणक्य ने गुणों का महत्व बताया है। चाणक्य ने संदेश दिया है कि हमें कभी भी किसी के रूप-रंग का मजाक नहीं बनाना चाहिए। किसी की सुंदरता देखकर उस व्यक्ति से बहुत ज्यादा प्रभावित नहीं होना चाहिए। गुणों को महत्व दें, सुंदरता को नहीं।