उत्तराखंड फिल्म जगत को 43 वर्ष हो चुके हैं और आज भी स्थानीय फिल्मों को दर्शक नहीं मिल पा रहे हैं,1983 से उत्तराखंड में फिल्मों का दौर शुरू हुआ जब पहली गढ़वाली फिल्म ‘जग्वाल’ बनी थी,उस दौर में फिल्म बनाना चुनौती भरा काम था लेकिन अब संसाधनों में काफी सुधार हो चुका है और फिल्म की डबिंग से लेकर कैमरा और बैकग्राउंड म्यूजिक तक सब उत्तराखंड में ही होता है,लेकिन शुरुआती दौर में जो उछाल स्थानीय फिल्मों ने पाया था वो अब धीरे-धीरे कम होता जा रहा है।
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आज हम देहरादून शहर में उत्तराखंड की फिल्मों का हाल जानने निकले तो पाया कि एक तरफ जहाँ फिल्म इंडस्ट्री में लगातार फिल्में बन रही हैं वहीँ दूसरी तरफ आम जनता ना ही फ़िल्में देख रही है और ना ही उनके अंदर स्थानीय भाषा की फिल्मों को लेकर कोई दिलचस्पी दिखी,बमुश्किल कुछ ही लोग मिले जिन्होंने फ़िल्में देखी वो भी या तो बचपन में देखी।
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तो अब सवाल ये उठता है कि जब आम जनता फ़िल्में देख ही नहीं रही है तो फिल्म देखने आ कौन रहा है,फिल्म से जुड़े लोग या उनके परिचित ही फिल्में देखेंगे तो फिल्म जगत बस नाम मात्र का रह जाएगा और एक दूसरे की फिल्मों की प्रसंशा और कमियां ही निकलती रहेंगी।
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स्थानीय भाषा की फिल्मों की बात की जाए तो अब तक 40 से अधिक फ़िल्में बन चुकी हैं,और सैकड़ों फ़िल्में सीडी,वीसीडी और यूट्यूब के लिए बनी हैं,स्थानीय भाषा की फिल्मों की बात की जाए तो अब तक 40 से अधिक फ़िल्में बन चुकी हैं,और सैकड़ों फ़िल्में सीडी,वीसीडी और यूट्यूब के लिए बनी हैं,बीते कुछ सालों से उत्तराखंड में फिल्म निर्माण की बाढ़ आ चुकी है और हर महीने कोई ना कोई फिल्म रिलीज़ होती है लेकिन थिएटर हॉल तक दर्शक पहुँच ही नहीं पाते।
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उत्तराखंड के स्थानीय सिनेमा के पिछड़ने के कई कारण दिए जाते हैं कि स्थानीय सिनेमा को देखने वाले असल दर्शक पहाड़ों में हैं और वहां सिनेमा हॉल नहीं है जिससे वो लोग फ़िल्में नहीं देख पाते,वहीँ मैदानों क्षेत्रों के लोग बॉलीवुड की फ़िल्में तो फर्स्ट डे फर्स्ट शो देखने पहुँच जाते हैं लेकिन स्थानीय भाषा की फिल्मों को देखने में ज्यादा रूचि नहीं रखते।इसके पीछे कई और कारण हो सकते हैं जनता के बीच ये भ्रम फैला हुआ है कि उत्तराखंड की फिल्मों में कुछ नहीं होता लेकिन जब तक देखेंगे ही नहीं तो कहानियों,तकनिकी गुणवत्ता का आंकलन कैसे लगा पाएंगे।
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