भोजन किसी भी समाज, संस्कृति और विशेष भौगोलिक परिस्थितियों में रहने वाले लोगों के भरण-पोषण और जीवन यापन का प्रमुख आधार है। उन्हीं विषम भौगोलिक परिस्थितियों में उगने वाले अनाज ही वहाँ के विशिष्ट व्यंजनों को पौष्टिक के साथ-साथ स्वाद में लजीज बनाते हैं। यही कारण है कि उत्तराखंड भी अपने प्राकृतिक सौन्दर्य के अलावा यहां के स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए भी जाना जाता है। उत्तराखंड के पारंपरिक भोजन यहां मौजूद सुदूरवर्ती पहाड़ी इलाकों की संस्कृति और समाज के रहन-सहन और खान पान को दर्शाते हैं। वर्षो से ये व्यंजन उत्तराखंड के लोगों के जीवन का प्रमुख आधार हैं।
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वैसे तो उत्तराखंड के दोनों ही मण्डल यानि कुमाऊं और गढ़वाल में संस्कृति में कुछ भिन्नता देखने को मिलती है मगर इन दोनों ही क्षेत्रों में कुछ विशेष व्यंजनों को छोड़कर लगभग सभी भोजन समान ही दिखता है बस नाम में भिन्नता है। वहीं मौसम के अनुसार भी भोजन में परिवर्तन देखने को मिलता है जैसे सर्दियों में तिल के लड्डू या मंडवी की रोटियां – झंगोरा, पसंद की जाती हैं तो गर्मी में छाज- छोलिया रोटियों के साथ पसंद की जाती है। तो यहां उगने वाली दालों का भोजन में प्रयोग मौसम के अनुसार होता है।
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काफुली या कपा – उत्तराखंड के पारंपरिक भोजन में काफली 1 स्वादिष्ट व्यंजन है । जिसे सर्दियों के मौसम में सबसे ज्यादा पसंद किया जाता है। काफली बनाने के लिए पालक लाई अब मतलब सरसों की पति या मेथी के छिलकों का उपयोग कर बनाया जाता है । इसी बनाने के लिए लोहे की कढ़ाई मैं इसे पकाया जाता है और इसका रंग काफी हरा होता है ।
फाणु – फाणु गढ़वाल क्षेत्र का विशिष्ट भोजन है। इसे तैयार करने में भी टाइम ज्यादा लगता है लेकिन स्वास्थ्य को अगर मद्देजनर नजर रखा जाए तो बहुत ही लजीज होता है।
गहत के पराठें – गहत के परांठे बनाने के लिए गहत को रात भर भीगाकर उबाल कर उसे पिसा जाता है। फिर उसके अंदर नमक, मिर्च मिलाकर उसे रोटी की तरह पकाया जाता है। अक्सर कई बार इसे पूरी जैसा भी तला जाता है। जिसको कद्दू की सब्जी के साथ परोसने पर इसका स्वाद कई गुना बड़ जाता है। वहीं इसे घी, मक्खन या फिर भंगीरे की चटनी के साथ भी इसका स्वाद और लजीज बन जाता है। अब इसे बनाने में मंडवे या गेंहू दोनों ही आटे का इस्तेमाल होता है।
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कोदे की रोटी– कोदा या मंडवा की रोटी और उससे बनने वाले व्यंजनों को उत्तराखण्डी लोग चाव से खाते हैं। कोदे की रोटी को आग के चूल्हे में पकाकर घरेलू मक्खन, घी, नमक और प्याज, या फिर भंगीरे की चटनी के साथ चाव से खाते हैं।
कंडाली का साग – अक्सर उत्तराखण्ड के सदूरवर्ती पहाड़ी इलाकों में ही देखने को मिलता है। आम जनजीवन में अब इसका अस्तित्व खोता जा रहा है। मगर अभी भी गढ़वाल के लोग इसे चाव से खाते हैं। कंडाली का साग बनाने के लिए प्रायः बिच्छू घास को उबाल कर उसे खाने युक्त बनाते हैं। अब कंडाली का प्रयोग भोजन के अन्य रूपों में भी इस्तेमाल किया जाने लगा है।
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