उत्तराखंड की धरती हमेशा से ही देवताओं की भूमि, साधना की स्थली और भारतीय संस्कृति की जीवंत पहचान रही है। गढ़वाल हिमालय की तलहटी में, मालिनी नदी की शांत लहरों के किनारे स्थित कण्वाश्रम न सिर्फ एक भौगोलिक स्थान है, बल्कि वह स्थल है जहाँ भारतीय सभ्यता की जड़ें आज भी सांस लेती हैं।
कण्वाश्रम—एक ऐसा नाम, जो वेदों, पुराणों और महाकाव्यों में श्रद्धा के साथ उच्चारित होता रहा है। ऋषि कण्व की यह तपोभूमि न केवल तपस्या का केंद्र रही, बल्कि शिक्षा, संस्कृति और आत्मज्ञान का भी आदिकालीन विश्वविद्यालय थी। आज यह स्थान उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल ज़िले के कोटद्वार नगर से लगभग 14 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और मालिनी नदी के दोनों तटों पर फैली हरियाली के बीच शांति से अपने अस्तित्व को समेटे बैठा है।
ऋषि कण्व: ज्ञान के वटवृक्ष
महर्षि कण्व, जिन्होंने वैदिक युग में अपनी विद्वता और तप से एक पूरी पीढ़ी को दिशा दी, महर्षि कश्यप के पुत्र थे। ऐसा माना जाता है कि ऋग्वेद के आठवें मंडल में जिन 103 सूक्तों का उल्लेख है, उनमें अधिकांश ऋषि कण्व और उनके वंशजों द्वारा उच्चारित हैं। उनकी विद्वता केवल वेदों तक सीमित नहीं थी — उन्होंने ‘कण्वस्मृति’ की भी रचना की, जो उस युग की सामाजिक व्यवस्थाओं को समझने का दस्तावेज़ है।
इतिहास कहता है कि सोमयज्ञ — जो वैदिक यज्ञों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है — उसकी संरचना और परंपरा को सबसे व्यवस्थित रूप महर्षि कण्व ने ही दिया था। उनकी धरोहर आज भी उनके नाम से बसे इस पवित्र आश्रम में जीवित है।
शकुंतला: पक्षियों की गोद में जन्मी कन्या
यह कथा वहीं से शुरू होती है, जहां तपस्याएं स्वर्ग को विचलित कर देती थीं। ऋषि विश्वामित्र की तपश्चर्या से भयभीत होकर देवराज इंद्र ने स्वर्ग की सबसे सुंदर अप्सरा — मेनका — को धरती पर भेजा। जब मेनका ने विश्वामित्र की तपस्या भंग की, तब उनके मिलन से एक कन्या का जन्म हुआ।
लेकिन यह कहानी वहां नहीं रुकी। मेनका कन्या को छोड़ स्वर्ग लौट गईं — और एक बालिका, नदियों और जंगलों के हवाले हो गई। पक्षियों से घिरी उस बच्ची को जब ऋषि कण्व ने पाया, तो उन्होंने उसे ‘शकुंतला’ नाम दिया — शकुन अर्थात पक्षी, और शकुंतला — वह जो पक्षियों द्वारा लाई गई।
कुछ जनश्रुतियों में यह भी कहा गया कि विश्वामित्र ने स्वयं उसे एक बांस की टोकरी में रखकर मालिनी नदी में प्रवाहित कर दिया था। परंतु नियति ने तय कर लिया था कि वह बालिका साधारण नहीं, इतिहास की धुरी बनेगी।
दुष्यंत और शकंतुला का गंधर्व विवाह
समय बीता। एक दिन हस्तिनापुर का राजा दुष्यंत, आखेट करते हुए कण्वाश्रम पहुंचा। वहीं उसे वन की पवित्रता में लिपटी शकुंतला दिखाई दी — पक्षियों, हिरणों और फूलों के बीच। उसकी सरलता, करुणा और सच्चाई ने दुष्यंत को मोह लिया।कण्वाश्रम ही वह स्थान बना जहाँ दोनों का गंधर्व विवाह हुआ — साक्षी बने प्रकृति के तत्व। समय के गर्भ से जन्मा उनका पुत्र — भरत — वही भरत, जिसके नाम से इस भूभाग को “भारत” कहा जाने लगा।
कहा जाता है कि भरत ने अपना बचपन जंगल के शावकों के बीच खेलते हुए बिताया और बड़े होकर वह सम्राट बना, जिसने भूमि के विशाल भूभाग को अपने अधीन किया — इसीलिए उन्हें सर्वदमन भी कहा गया।
कालिदास की लेखनी और पुराणों की पुष्टि
महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम्’ में जिस शांत, रमणीय और दिव्य वातावरण का चित्रण किया है, वह कण्वाश्रम का ही वर्णन है। स्कंद पुराण से लेकर ऋग्वेद के सूक्तों तक और केदारखंड की यात्राओं में कण्वाश्रम का महात्म्य उजागर होता है। ‘प्रस्थे हिमवतो रम्ये मालिनीममितो नदीम्’ जैसी ऋचाएं इसका ऐतिहासिक महत्व प्रमाणित करती हैं। कहा जाता है कि लगभग 5500 वर्ष पहले ऋषि कण्व ने यहाँ एक गुरुकुल की स्थापना की थी। इस गुरुकुल में चारों वेद, ज्योतिष, व्याकरण, आयुर्वेद, शास्त्र और योग की शिक्षा दी जाती थी। एक समय ऐसा भी आया जब यहां शिक्षा ग्रहण करने वालों की संख्या दस से पच्चीस हजार तक पहुँच गई थी। नालंदा और तक्षशिला के उदय से पहले ही यह भूमि एक अंतरराष्ट्रीय ज्ञानकेंद्र के रूप में प्रतिष्ठित थी।
अब भी बह रही है मालिनी, अब भी बिखरे हैं चिन्ह
मालिनी नदी, जो अब भी उसी पवित्रता और शांति से बहती है, इस क्षेत्र की आत्मा है। कभी-कभी इसके बहाव में प्राचीन भग्नावशेष ऊपर आ जाते हैं — जैसे इतिहास खुद को दोबारा सुनाने चला हो। आश्रम के पास की गुफाएं और बिखरे हुए अवशेष उस काल की गवाही देते हैं जब ज्ञान और साधना यहाँ की धड़कन हुआ करती थी।
वर्तमान में भी जीवंत है परंपरा
आज भी कण्वाश्रम में पारंपरिक गुरुकुल की झलक देखी जा सकती है। ऋषि-मुनियों की परंपरा को जीवित रखते हुए यहाँ शिक्षा दी जाती है। हर वर्ष बसंत पंचमी के अवसर पर तीन दिवसीय उत्सव होता है, जिसमें सांस्कृतिक कार्यक्रमों से लेकर लोककलाओं तक, हर रंग झलकता है। कण्वाश्रम कोई साधारण ऐतिहासिक स्थल नहीं है। यह हमारी सांस्कृतिक चेतना का हिस्सा है, वह बिंदु है जहाँ भारत के नाम की उत्पत्ति जुड़ी है, वह धरा है जहाँ धर्म, ज्ञान, प्रेम और करुणा ने एक साथ जन्म लिया। यह स्थान न केवल अतीत का आईना है, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए एक मार्गदर्शक भी है।