अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष पहाड़ की प्रथम लोकगायिका का जीवन।

0
245
the-life-of-the-first-folk-singer-of-a-special-mountain-on-international-womens-day

आज अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस है पूरे विश्व में इस दिन को बड़े धूम धाम से मनाया जा रहा है,आज हम आपसे उत्तराखंड लोकसंगीत की प्रथम लोकगायिका के बारे में बताएँगे,जिन्होंने अपनी आवाज से उत्तराखंड के लोकसंगीत को रेडियो के माध्यम से घर-घर पहुँचाने का कार्य किया।राष्ट्रपति सम्मान से सम्मानित कबूतरी देवी आज इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन उनका योगदान समय समय पर याद किया जाता रहा है।

the-life-of-the-first-folk-singer-of-a-special-mountain-on-international-womens-day

यह भी पढ़ें: जानिए कैसे कोटद्वार के इस लडके के दीवाने है दुनियाभर के रैपर्स? (Rap With Talent)

समाज में व्याप्त रूढ़िवादी सोच की जंजीरों को तोड़ते हुए स्वर्गीय कबूतरी देवी उत्तराखंड की पहली लोकगायिका बनी जिनके गीत आकाशवाणी केंद्र से प्रसारित हुए,उत्तराखंड की अनुसूचित जाति(शिल्पकार) की उपजाति गंधर्व/मिरासी जाति में जन्मी कबूतरी देवी को संगीत विरासत में मिला,यह जाति पीढ़ी दर पीढ़ी शादी और अन्य समारोहों में लोकगीत गाकर ही अपना जीवन यापन करती थी,इनके पास कुमाउनीं लोकगीतों की दुर्लभ विरासत थी जो उन्हें पुश्तैनी रूप से विरासत में मिली।

यह भी पढ़ें: गोपाल सिंह रावत के गीत जा तितरी जा में कलाकारों ने बांधा समा,देखें वीडियो।

गायन की औपचारिक शिक्षा न होने के बावजूद भी कबूतरी देवी ने लोकगीतों को घर-घर तक पहुँचाने के लिए अभूतपूर्व कार्य किया।उनके गाए हुए लोकगीतों में”आज पनी ज्यों-ज्यों,भोल पनी ज्यों-ज्यों पोरखिन न्हें जोंला एवं “पहाड़ों को ठंडों पाणी के भली मीठी बाणी” काफी लोकप्रिय हुए।

यह भी पढ़ें: झंगरा घोडू लेकर पहुंचे नीरज,लड़की ने किया ये हाल।देखिए ये मजेदार वीडियो।

पहाड़ की रहने वाली कबूतरी देवी का जीवन भी पहाड़ जैसा ही संघर्षपूर्ण रहा,जिन हाथों से कबूतरी देवी साज बजाती थी उन्हीं हाथों से पत्थर भी तोड़ती थी,गरीबी की जिंदगी जीने वाली यही लोकगायिका बाद में उत्तराखंड की तीजनबाई,और पहाड़ की बेगम अख्तर कहलाई।जिस समाज में कबूतरी देवी ने जन्म लिया उसे समाज की हीन भावना का शिकार भी होना पड़ा तब इन लोककलाकारों को वो सम्मान नहीं मिल पाता था जिसके वो हकदार थे,आज ढूंढने भी निकलेंगे तो ऐसे कलाकार नहीं मिलेंगे जिनके पास लोकगीतों का इतना बड़ा खजाना रहा है।

यह भी पढ़ें: गरीबी पर भारी जूनून, कमान सिंह तोपवाल (Kaman Singh Topwal) के संघर्षो से भरे जीवन का परिचय।

कबूतरी देवी का जन्म जिस परिवार में हुआ उनकी आजीविका का साधन खेतिहर मजदूरी करना,भवन निर्माण करना,कृषि यंत्र और औजार बनाना था इन्हीं संघर्षों के बीच ये समाज के मनोरंजन करने का भी मुख्य स्रोत रहे,तब मनोरंजन के इतने साधन नहीं थे और विवाह एवं अन्य समारोहों पर इसी समाज के लोग गायन एवं नृत्य से लोगों का मनोरंजन करते थे,कबूतरी देवी का कम उम्र में ही दीवानीराम से विवाह हो गया जो उन्हें आकाशवाणी तक ले गए और इस हिसाब से उत्तराखंड की पहली लोकगायिका का पुनर्जन्म हुआ।दीवानीराम ही कबूतरी देवी के गीतों को लिखते थे जिन्हें वो रास्तों में चलते-चलते याद करती थी।

यह भी पढ़ें: ओम तरोनी और मिनी उनियाल दिखेंगे नए अवतार में ,देखिए टीज़र।

1970-80 के दशक में कबूतरी देवी ने उत्तराखंड के लोकगीतों का विश्व पटल पर परिचय करवाया,गुमनामी की जिंदगी जीने वाली कबूतरी देवी को एक नाम मिलने लगा,लेकिन पति के निधन के बाद कबूतरी देवी का जीवन फिर उसी राह पर आ गया जहाँ से उन्होंने जीवन शुरू किया था अपने गीतों से विरह,प्रकृति एवं प्रेम की झलक दिखलाने वाली ये लोकगायिका फिर से जीवन यापन करने के लिए मजदूरी करने लगी।

यह भी पढ़ें: अंकित और नताशा की जोड़ी फिर धमाल मचाने को तैयार,रिलीज़ हुआ पोस्टर।

वर्ष 2002 में पिथौरागढ़ लोककला मंच एक बार फिर सामने लेकर आई,कबूतरी देवी ने कभी गायन को अपना व्यवसाय नहीं बनाया शायद इसी वजह से कबूतरी देवी को कभी वो सम्मान नहीं मिल पाया जिसकी वो हकदार थी,जीवन के संघर्षों से थकहार कर कबूतरी देवी का वर्ष 2018 में निधन हो गया और लोकगीतों का एक युग उन्हीं के साथ समाप्त हो गया।

उत्तराखंड फिल्म एवं संगीत जगत की सभी ख़बरों को विस्तार से देखने के लिए हिलीवुड न्यूज़ को यूट्यूब पर सब्सक्राइब करें।