देवभूमि उत्तराखंड जहां ऐसे सपूत जन्म लेते हैं, जिनके अंदर देशप्रेम, मानवता कूट-कूट कर भरी हुई है, इसी मानवता के कारण भारत को ऐसे वीर मिले जिन्होंने बिना कुछ सोचे देश के लिए अपन प्राणों को त्याग दिया, अपने आज के पोस्ट में हम आपको एक ऐसे ही वीर के बारे में बताने वाले हैं जिनकी देशभक्ति के जज्बे को देखकर गांधी जी बोलते थे, मुझे एक और ऐसा देशभक्त मिल जाता तो देश कबका आजाद हो जाता.
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आज के पोस्ट में हम आपको वीर चंद्र सिंह गढ़वाली के बारे में बताएंगे, जिनका नाम देशभक्ति के कारण पेशावर कांड से जुड़ा और जिनकी देशभक्ति के जज्बे को देख गाँधी जी बोलते थे ,”मुझे एक और चंद्र सिंह मिल जाता तो देश कबका आजाद हो जाता, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का जन्म 24 दिसंबर 1891 को मीसोन, पट्टी चौथान, तहसील थलीसैंण जिला गढ़वाल में हुआ था, उनके वास्तविक शिक्षक वह समृद्ध अनुभव थे जो उन्होंने सेना में अपनी सेवा के दौरान अपनी व्यापक और विविध यात्राओं और कारावास की लंबी अवधि के दौरान एकत्र किए थे, जिसका उन्होंने देश की स्वतंत्रता के लिए अपनी लड़ाई में सावधानीपूर्वक साहस और धैर्य के साथ सामना किया था.
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उत्तराखंड के वीर सपूत वीर चंद्र सिंह गढ़वाली जी का जन्म 25 दिसम्बर 1891 को पौड़ी जिले के चौथान पट्टी के गावं रोनौसेरा में हुआ था, वीर चंद्र सिंह गढ़वाली का असली नाम चंद्र सिंह भंडारी था, उनके पिता जाथली सिंह एक किसान और वैद्य थे, बचपन में उन्हें स्कूल जाने का मौका तो नहीं मिला लेकिन एक ईसाई अध्यापक से उन्होंने अपनी प्राथमिक शिक्षा प्राप्त की, 15 वर्ष की आयु में उनका विवाह हो गया, एक वर्ष के अंतराल में उनकी पत्नी श्रीमती कलूली देवी चल बसी, फिर 16 वर्ष की आयु में उनका दूसरा विवाह हुआ, वर्ष भर में उनकी दूसरी पत्नी भी चल बसी, उसके बाद उनका तीसरा और चौथा विवाह भी हुआ, उसके बाद 18 वर्ष की आयु में चंद्र सिंह गढ़वाल राइफल के 2 /39 बटालियन में भर्ती हो गए.
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अंग्रेज सैनिक के रूप में 1915 में मित्र राष्ट्रों की तरफ लड़ने के लिए फ़्रांस गए, वहां फ्राँसियों पर अंग्रेजों के अत्याचारों से उनकी अंग्रेज सरकार के लिए सहानुभूति कम हो गई, 1920 में प्रथम विश्व युद्ध के बाद अंग्रेजों ने यहाँ की कई पलटने तोड़ दी, अनेक गढ़वाली सैनिको निकाल दिए गए, कई पदाधिकारियों को सैनिक बना दिया, अंग्रेजो के इस भेदभाव निति से चंद्र सिंह भी हवलदार से सैनिक बन गए, इस दौरान देश और विश्व के घटनाक्रम को उन्होंने नजदीक से देखा, इस दौरान गाँधी जी के संपर्क में आये जिसके बाद उनके अंदर देशप्रेम की इच्छा बलवती हो गई.
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जब महात्मा गांधी जून 1929 में बागेश्वर, अल्मोडा में एक सार्वजनिक बैठक में उत्तराखंड आए तो चंद्र सिंह गढ़वाली ने जो सेना की टोपी पहनी हुई थी, उसने गांधीजी का ध्यान आकर्षित किया, जिन्होंने टिप्पणी की कि वह सेना की टोपी से नहीं डरते, चंद्र सिंह गढ़वाली ने इशारा करते हुए जवाब दिया, वह, यदि वे चाहें तो गांधीजी टोपी बदल सकते थे, जब गांधीजी ने उन्हें खादी टोपी भेंट की, तो सैनिक ने टोपी के सम्मान को एक दिन बचाने की प्रतिज्ञा की.
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20 अप्रैल, 1930 को खान अब्दुल गफ्फार खान के नेतृत्व में उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू हुआ और 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में प्रदर्शन और सत्याग्रह के कार्यक्रम की योजना बनाई गई, ब्रिटिश सरकार ने किसी भी कीमत पर पठानों के इस आंदोलन को दबाने के लिए सेना तैनात करने का फैसला किया, गढ़वाल राइफल्स के चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके लोगों ने निहत्थे लोगों पर गोली चलाने के अपने ब्रिटिश कमांडर के किसी भी आदेश का चुपचाप विरोध करने का संकल्प लिया.
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23 अप्रैल 1930 को पेशावर में किस्साखानी बाजार पुलिस चौकी के सामने हजारों की संख्या में पठान जमा हुए थे और उनके बीच राष्ट्रीय ध्वज लहरा रहा था, गढ़वाल राइफल्स के जवान पठानों के सामने खड़े थे और सैकड़ों लोग अपने घरों और छतों से देख रहे थे, ब्रिटिश कैप्टन ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों को तितर-बितर होने की चेतावनी दी लेकिन उन पर इसका कोई असर नहीं हुआ, जब गुस्से में आकर उन्होंने चिल्लाया, ‘गढ़वाली तीन राउंड फायर’, तो उतनी ही दृढ़ आवाज सुनाई दी, ‘गढ़वाली सीज फायर’, और गढ़वाली सैनिकों ने अपनी राइफलें जमीन पर गिरा दीं, चंद्र सिंह गढ़वाली की आवाज एक बार फिर गूंज उठी कि वे निहत्थे लोगों पर गोली नहीं चलाएंगे, भले ही कैप्टन उन्हें गोली मार दे, यह साहस का अद्भुत प्रदर्शन था. हमारे स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में एक असाधारण क्षण, उत्तराखंड को यूं ही वीरों की भूमि नही कहा जाता यहा आज भी ऐसे नौजवान जन्म लेते हैं तो अपने देश के खातिर मर मिटने को तैयार रहते हैं, जिनके उदाहरण आज आप हम और सभी की आंखों के सामने है.
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