कभी-कभी जीवन में परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि मन की पीड़ा शब्दों में नहीं उतर पाती। अपनेपन की तलाश में जब अपनों से दूरी बढ़ती है, तो दिल का दर्द और गहरा हो जाता है। यही मार्मिक अनुभूति एक किसान की बेटी की कहानी में झलकती है, जो अंततः उम्मीद और प्रेम का प्रतीक बन जाती है।
बेटी का ससुराल और तन्हाई
बहुत पुराने समय की बात है। एक साधारण किसान ने बड़े प्यार से अपनी इकलौती बेटी का विवाह कर उसे विदा किया। बेटी के विदा होते ही किसान और उसकी पत्नी का घर सूना हो गया। वे रोज उसकी राह तकते, मगर वह लौटकर नहीं आई।
दूसरी ओर, बेटी का जीवन ससुराल में कठिनाइयों से भरा था। सास के कठोर व्यवहार ने उसे भीतर ही भीतर तोड़ दिया था। वहाँ उसकी सुनने वाला कोई नहीं था। दिनभर वह उदास-सी रहती, खेतों, बाग-बगिचों और जंगलों में भटकती। कभी पेड़ों से बातें करती, तो कभी पत्थरों को अपना दर्द सुनाती। गाँव के लोग उसे “पगली” कहने लगे थे, पर उसकी चुप्पी में गहरी पीड़ा छुपी थी।
उम्मीद की एक किरण
त्योहारों पर गाँव में जब रौनक लौटती, बहुएँ-बेटियाँ मायके आतीं, तो किसान दंपती भी अपनी बेटी की आस में आँखें बिछा देते। फिर एक दिन, बेटी को खबर मिली कि उसकी माँ बहुत बीमार है। माँ की हालत सुनकर उसके भीतर चिंता की लहर दौड़ गई।
उसने साहस कर सास से मायके जाने की अनुमति मांगी। मगर सास ने शर्त रखी कि पहले सारे घरेलू काम निबटाने होंगे। दिन ढलने लगा, फिर भी वह अपने सामर्थ्य से बढ़कर काम करती रही। अंत में, बहुत अनुनय-विनय के बाद उसे चलने की इजाजत मिली।
लौटना और बिछड़ना
तेजी से कदम बढ़ाते हुए भी उसे लगता जैसे मंजिल दूर होती जा रही हो। रास्ते भर एक ही ख्वाहिश मन में थी – काश उसके पंख होते, तो वह उड़कर माँ-बाबू के पास पहुँच जाती।
जब वह माँ-बाबू के घर पहुँची, तो दृश्य देखकर उसका दिल दहल गया। माँ क्षीण काया लेकर निढाल पड़ी थीं और पिता समय से पहले वृद्ध हो गए थे। बेटी की हालत देखकर वे भी स्तब्ध रह गए। दोनों के होंठ कुछ कहने को हिले, पर आवाज न निकली।
बेटी ने माँ को छुआ, मगर माँ तो इस दुनिया को अलविदा कह चुकी थीं। उसने पिता से लिपटकर रोना चाहा, पर उनका हृदय भी अब धड़कना बंद कर चुका था। बेटी बिलख पड़ी। उसके अपने, जिनसे वह दिल की बात कहना चाहती थी, हमेशा के लिए खामोश हो चुके थे।
प्रेम की अमर निशानी
कुछ समय बाद, उस सूने आँगन में एक बुरांश का छोटा-सा पौधा उग आया, जो धीरे-धीरे हरा-भरा होने लगा। वसंत आते ही उस पर रक्तिम फूल खिल उठे। अब बेटी हर त्योहार पर बुरांश के पेड़ से मिलने मायके आती थी।
आज भी पहाड़ों में बुरांश के फूल जब खिलते हैं, तो बहुएँ-बेटियाँ मायके की याद में उस प्रेम को महसूस करती हैं, जो कभी खत्म नहीं होता। बुरांश अब केवल एक पेड़ नहीं, बल्कि मायके के रिश्ते का प्रतीक बन चुका है — ऐसा रिश्ता, जो हमेशा खुशियाँ और अपनापन लाता है।
(साभार : करुणा पांडेय)