बासंतिक चैत्र मास नवजीवन दे, धन दे, यौवन दे.. माधुर्य दे सुख दे.. सौहार्द दे…।

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Fyoli vipin semwal

बसंत पहाड़ों में हर्ष, उल्लास और दीर्घायु का संदेश लेकर आता है। बसंत के प्रवेश का द्यौतक फूलदेई त्यौहार जिसे कि बाल पर्व के रूप में जाना जाता है, का शुभारंभ माना जाता है। सूर्य के मीन राशि में प्रवेश करने के साथ ही पहाड़ों की लोकसंस्कृति तथा परंपराओं का सहेजने के लिये नन्हे मुन्ने बच्चों द्वारा लोगों की देहरी देहरी पर फूलों को डाल आपसी सौहार्द और भाईचारे को बढ़ावा देने की परिकल्पना संजोते हैं। फूलदेई त्यौहार में बच्चों के हाथों में फुलकंडी , कंधे पर माता घोघा की डोली, आंखों में एक दूसरे के लिये शुभकामनायें लेकर लोगों की देहरी देहरी का ब्रम्ह मुहूर्त में श्रृंगार करते हैं। उच्च हिमालयी क्षेत्रों और निचले क्षेत्रों में फ्यौंली से लकदक खेत, रक्तिम बुरांश, आड़ू, पोलम , मेलू के सफेद फूलों को तोड़कर बच्चे अपनी फुलकंडी में भरकर रात्रि को सरसों के खेतों में सुरक्षित और सहेजकर रखते हैं।

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एक कितली दस गिलास हमरू घोघा फस्कलास , घोघा पुजारी म्वारून चड़काई आदि उद्घोषों से कई गांवों तथा कस्बों का भ्रमण करके ये बच्चे लोगों को खुशियों की सौगात देते हैं। इसके साथ ही इनके साथ धोती कुर्ता में सुशोभित बालक लोगों को पीला चंदन लगाकर उनके सुखद भविष्य की कामना भी करता है। कई स्थानों पर यह बाल पर्व आठ दिन तो कई स्थानों पर माह भर का होता है। गढ़वाल के कई क्षेत्रों में इस त्यौहार से पूर्व बच्चे जंगलों में जाकर अंयार पेड़ और विषैले सांपो की काल्पनिक पूजा करते हैं, इससे पीछे यह मान्यता है, कि ऐसा करने से अंयार का विष गाय आदि मवेशियों को नहीं लगता है, साथ ही बाघ द्वारा मवेशियों की रक्षा भी हो जाती है। यह त्यौहार महज बच्चों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि लोक जीवन से जुड़ी बादी, औजी हुड़किये गांव गांव जाकर चैती गीत गाते हैं। चैत्र मास में नवविवाहिता मायका से अपने बुलावे का बेसब्र इंतजार करती हैं। चारों तरफ लकदक रंग बिरंगे पुष्पों तथा हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं के बीच इस तरह का त्यौहार सुख, शांति तथा सौहार्द का प्रतीक भी माना जाता है।

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पौराणिक कथाओें के अनुसार फ्यौंली एक गरीब परिवार की सुंदर, सुशील और सुलभ लड़की थी। एक बार निकटवर्ती गढ़ नरेश शिकार खेलते खेलते फ्यौंली के गांव में पहुंचा और रात्रि प्रवास के लिये फ्यौंली के घर रूक गया। राजकुमार लड़की को देखकर मंत्रमुग्ध हो गया। और उसने फयौंली के मां बाप से जिद करके उसका हाथ मांगा। मां बाप इस रिश्ते को देखकर खुश हो गये। कुछ माह बाद उन्होंने अपनी बेटी की शादी राजकुमार से कर दी। ससुराल आकर यहां की आबोहवा और राजसी ठाट में फ्यौंली असहज महसूस करने लगी। अल्हड़ हंसी, बालपन की ठिठोली और स्वतंत्र भाव से गांव गांव का विचरण करने वाली फ्यौंली अंदर ही अंदर घुटने लगी। मां बाप की यादें जब मन मस्तिष्क से टकराती तो, उसने मायके जाने की जिद शुरू कर दी। राजकुमार ने कई माह तक उसे मायके नहीं भेजा, जिस कारण उसका शरीर धीरे धीरे मुरझाने लगा। मुख की लालिमा जब श्वेत पड़ने लगी तब मजबूर होकर राजकुमार ने उसे मायके छोड़ दिया। कई दिन बाद जब राजकुमार फ्यौंली के मायके पहुंचा तो देखा कि वह मरणासन्न अवस्था में पड़ी है, तो राजकुमार का मन विचलित होने लगा, उसने अन्ततः फ्यौंली से उसकी अंतिम इच्छा पूछी, उसने बताया कि जब वह मृत्युगत हो जायेगी तो घर के मुंडेर पर ही उसे दफना देना। उसकी मौत के बाद राजकुमार ने उसे वहीं दफना दिया। कई वर्शों बाद उस मुंडेर पर एक पीला पुश्प उगा, जिसका नाम फ्यौंली रखा गया। उस दिन से फ्यौंली की यादों को चिरंतन संजोये रखने के लिये क्षेत्र में नन्हे मुन्ने बच्चों ने फ्यौंली निकालकर लोगों की देहरी देहरी पर सजाना प्रारम्भ किया।

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चैत्र मास में प्रकृति विषिश्ट रूप से सजी होती है। चांदी सदृष चमचमाते हिमषिखर , बहती निर्मल जलधारायें, नई नई प्रस्फुटित होती पीली कोपलें तथा फूलों से सुसज्जित पेड़ नैसर्गिक सौन्दर्य से खिला खिला प्रकृति का यौवन देखते ही बनता है। लेकिन कुछ अधिक पाने की चाह में लगातार खाली होते वीरान गांवों में बच्चों की किलकारियां लगातार कम होती जा रही है, जो निकट भविश्य में जरूर चिंताजनक विशय हो सकता है। गढ़वाल की संस्कृति के वाहक हमारे कई तीज त्यौहार हैं, जिनके संरक्षण के लिये शासन प्रशासन को भी आगे आना चाहिये, ताकि गांव की बिलुप्त होती परंपराओं तथा संस्कृति का संवर्द्धन हो सके।

हिल्लीवुड न्यूज
बिपिन सेमवाल