गढ़वाल कुमाऊँ की संस्कृति यहाँ के मेलों में समाहित है। रंगीले गढ़वाल और कुमाऊँ के मेलों में ही यहाँ का सांस्कृतिक स्वरुप निखरता है। धर्म, संस्कृति और कला के व्यापक सामंजस्य के कारण इस अंचल में मनाये जाने वाले उत्सवों का स्वरुप बेहद कलात्मक होता है। छोटे-बड़े सभी पर्वों, आयोजनों और मेलों पर शिल्प की किसी न किसी विद्या का दर्शन अवश्य होता है। कुछ मेले देवताओं के सम्मान में आयोजित होते हैं तो कुछ व्यापारिक दृष्टि से अपना महत्व रखते हुए भी धार्मिक पक्ष को पुष्ट अवश्य करते है।पूरे अंचल में स्थान-स्थान पर कई मेले आयोजित होते हैं जिनमें यहाँ का लोक जीवन, लोक नृत्य, गीत एवं परम्पराओं की भागीदारी सुनिश्चित होती है। सुदूर अंचलों में तो बरसों का बिछोह लिये लोग मिलन का अवसर मेलों में ही तलाशते हैं। आज की पोस्ट में हम आपको उत्तराखंड के प्रसिद्ध मेलों के बारे में बताएंगे –
यह उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में आयोजित होने वाले सबसे बड़े मेलों में से एक है और हर साल 14 जनवरी को आयोजित होने वाले मकर संक्रांति महोत्सव के दौरान मनाया जाता है। उत्तरायणी मेला महोत्सव कुमाऊं और दोनों क्षेत्रों में मनाया जाता है गढ़वाल उत्तराखंड में।मान्यता है कि वर्ष में सूर्य छः माह दक्षिणायन में व छः माह उत्तरायण में रहता है। मकर संक्रान्ति से सूर्य उत्तरायण में प्रवेश करता है इस समय संगम में डुबकी लगाने से सारे पाप धुल जाते हैं।उत्तरायणी उत्तराखंड के बागेश्वर जिले का सबसे बड़ा और सबसे ज्यादा मनाया जाने वाला त्योहार और मेला है । यह हिंदुओं के मकर संक्रांति त्योहार के अवसर पर मनाया जाता है जो उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं दोनों क्षेत्रों में अत्यंत हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है।
उत्तराखण्ड के गढ़वाल अंचल में श्रीनगर में बैकुंठ चतुर्दशी का मेला प्रतिवर्ष लगा करता है। विभिन्न पर्वों की भांति वैकुण्ठ चतुर्दशी वर्षभर में पडने वाला हिन्दू समाज का महत्वपूर्ण पर्व है। सामान्यतः दीपावली तिथि से 14 वे दिन बाद आने वाले साल का यह पर्व धार्मिक महत्व का है।ऐसा माना जाता है कि बैकुंठ चतुर्दशी के दिन भगवान विष्णु और शिव एक ही रूप में होते हैं. मान्यता है कि जो भी कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी तिथि को बैकुंठ चतुर्दशी का व्रत करता है. उनके लिए स्वर्ग के द्वार खोल दिए जाते हैं. इस दिन जो भी भक्त विष्णु की पूजा करता है उसे बैकुंठ धाम की प्राप्ति होती है l
चमोली गढ़वाल के गौचर नामक नगर में लगने वाला यह ऐतिहासिक मेंला उत्तराखंड का औधोगिक मेला के नाम से भी प्रसिद्ध है। अलकनंदा नदी के किनारे बसा रमणीय स्थल गौचर समुद्रतल से लगभग 8000 मीटर उचाई पर स्थित है। गौचर बद्रीनाथ जाने वाले मार्ग पर पड़ने वाला विशाल मैदानी हिस्सा है। यहाँ प्रतिवर्ष 14 नवंबर से 20 नवंबर तक यहाँ प्रसिद्ध गौचर मेला आयोजित किया जाता है। यह मेला व्यापारियों और पहाड़ के लोगों के लिए एक विशेष आकर्षण है। यह मेला सांस्कृतिक के साथ उद्योग ,व्यापार के समन्वय के कारण उत्तराखंड के प्रसिद्ध मेलों में गिना जाता है।
माघ मेला उत्तरकाशी इस जनपद का काफी पुराना धार्मिक/सांस्कृति तथा व्यावसायिक मेले के रूप में प्रसिद्ध है। इस मेले का प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन पाटा-संग्राली गांवों से कंडार देवता के साथ -साथ अन्य देवी देवताओं की डोलियों का उत्तरकाशी पहुंचने पर शुभारम्भ होता है। यह मेला 14 जनवरी मकर संक्राति से प्रारम्भ हो 21 जनवरी तक चलता है। इस मेले में जनपद के दूर दराज से धार्मिक प्रवृत्ति के लोग जहाँ गंगा स्नान के लिये आते हैं। वहीं सुदूर गांव के ग्रामवासी अपने-अपने क्षेत्र के ऊन एवं अन्य हस्तनिर्मित उत्पादों को बेचने के लिये भी इस मेले में आते हैं। इसके अतिरिक्त प्राचीन समय में यहाँ के लोग स्थानीय जडी-बूटियों को भी उपचार के लिये लाते थे किन्तु वर्तमान समय में इस पर प्रतिबन्ध लगने के कारण अब मात्र ऊन आदि के उत्पादों का ही यहाँ पर विक्रय होता है। वर्तमान काल मे यहाँ आने वाले व्यापारियों में मुस्लिमों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ़ी है, जो कि स्थानीय लोगों एवं उत्तराखंड की संस्कृति के ध्वज्वाहक लोगों के लिए चिंता का सबब सा बना हुआ है।
बसन्त पंचमी हिन्दू समाज का प्रमुख पर्व है, परिवर्तन व आशा-उमंग के इस पर्व का विभिन्न धार्मिक स्थलों पर उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। जनपद पौडी में कोटद्वार के समीप (कोटद्वार से 14 कि.मी.) कण्वाश्रम ऐतिहासिक, सांस्कृतिक महत्व का स्थल है। यहॉ पर प्रति वर्ष बसन्त पंचमी पर्व पर दो दिवसीय सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। जिसमें हजारों की संख्या में दर्शक मौजूद रहते हैं।
चंपावत जनपद में टनकपुर के निकट पूर्णागिरि मंदिर में यह मेला प्रतिवर्ष होली पर्व के दूसरे दिन आयोजित होता है। यह मेला 1 से 2 माह तक चलता है। मान्यता है कि सती के अग्निकुण्ड में देह त्याग करने के बाद जब भगवान शिव उनके शव को लेकर आकाश में जा रहे थे तब यहाँ माता सती का नाभि अंग इस स्थान पर गिरा था। पूर्णागिरि तीर्थ को देवी की 108 सिद्धि पीठों में गिना जाता है।
देवीधुरा में वाराही देवी मंदिर के प्रांगण में प्रतिवर्ष रक्षावन्धन के अवसर पर श्रावणी पूर्णिमा को पत्थरों की वर्षा का एक विशाल मेला जुटता है । मेले को ऐतिहासिकता कितनी प्राचीन है इस विषय में मत-मतान्तर हैं । लेकिन आम सहमति है कि नह बलि की परम्परा के अवशेष के रुप में ही बगवाल का आयोजन होता है ।लोक मान्यता है कि किसी समय देवीधुरा के सघन बन में बावन हजार वीर और चौंसठ योगनियों के आतंक से मुक्ति देकर स्थानीय जन से प्रतिफल के रुप में नर बलि की मांग की, जिसके लिए निश्चित किया गया कि पत्थरों की मार से एक व्यक्ति के खून के बराबर निकले रक्त से देवी को तृप्त किया जायेगा, पत्थरों की मार प्रतिवर्ष श्रावणी पूर्णिमा को आयोजित की जाएगी । इस प्रथा को आज भी निभाया जाता है । लोक विश्वास है कि क्रम से महर और फव्यार्ल जातियों द्वारा चंद शासन तक यहाँ श्रावणी पूर्णिमा को प्रतिवर्ष नर बलि दी जाती थी ।
उत्तराखंड में नंदा देवी महोत्सव हर साल बड़े ही हर्ष और उल्लास के साथ मनाया जाता है। आस्था और भक्ति का प्रतिक यह मेला तीन से चार दिन तक मनाया जाता है। इसे नंदा अष्टमी के नाम से भी जाना जाता है। पंचमी तिथि पर देवी की दो भव्य प्रतिमाएं बनायी जाती हैं। इसे उत्तराखंड की सबसे ऊँची चोटी नंदादेवी के समान ही बनाते हैं। पूरे उत्सव, त्योहार के दौरान अलग-अलग दिन परंपरागत तरीके से विधि के अनुसार पूजन का आयोजन होता है।
प्रत्येक 3 साल में हरिद्वार, उज्जैन, प्रयागराज और नासिक में एक बार आयोजित होने वाले मेले को कुंभ के नाम से जानते हैं। वहीं हरिद्वार और प्रयागराज में प्रत्येक 6 वर्ष में आयोजित होने वाले कुंभ को अर्धकुंभ कहते हैं। वहीं केवल प्रयागराज में प्रत्येक 12 साल में आयोजित होने वाले कुंभ को पूर्ण कुंभ मेला कहते हैं।खगोल गणनाओं के अनुसार यह मेला मकर संक्रान्ति के दिन प्रारम्भ होता है, जब सूर्य और चन्द्रमा, वृश्चिक राशि में और वृहस्पति, मेष राशि में प्रवेश करते हैं। मकर संक्रान्ति के होने वाले इस योग को “कुम्भ स्नान-योग” कहते हैं और इस दिन को विशेष मंगलकारी माना जाता है, क्योंकि ऐसा माना जाता है कि इस दिन पृथ्वी से उच्च लोकों के द्वार इस दिन खुलते हैं और इस प्रकार इस दिन स्नान करने से आत्मा को उच्च लोकों की प्राप्ति सहजता से हो जाती है। यहाँ स्नान करना साक्षात् स्वर्ग दर्शन माना जाता है। इसका हिन्दू धर्म मे बहुत अधिक महत्व है।
मान्यताएँ है कि 1699 ई. में श्री गुरुराम रॉय द्वारा अपना डेरा देहरादून में डाला गया था तब ही से होली त्यौहार के पांचवें दिन गुरुराम रॉय जी के जन्मोत्सव के अवसर में गुरुराम रॉय दरबार साहिब के झंडा मोहल्ला देहरादून में प्रतिवर्ष 15 दिन तक झंडे मेले का आयोजन होता है। इस मेले में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और हिमाचल प्रदेश से भी श्रद्धालु आते है।
जौनपुर क्षेत्र में बिस्सू मेले का आयोजन प्रति वर्ष अप्रैल माह में होता है। इस अवसर पर सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। इस मेले का उद्देश्य अपनी लोक संस्कृति का संरक्षण करना है