उत्तराखंड की संस्कृति जितनी समृद्ध है, उतने ही मन को मोहने वाले यहां के लोकगीत-नृत्य भी हैं। यहां लोक की विरासत समुद्र की भांति है, जो अपने आप में विभिन्न रंग और रत्न समेटे हुए है। हालांकि, वक्त की चकाचौंध में अधिकांश लोकनृत्य कालातीत हो गए, बावजूद इसके उपलब्ध नृत्यों का अद्भुत सम्मोहन है। हम आपको उत्तराखंडी लोक के इसी मनोहारी रूप से के बारे में बताएंगे।
उत्तराखंडी लोकजीवन अलग ही सुर-ताल लिए हुए है, जिसकी छाप यहां के लोकगीत-नृत्यों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उत्तराखंडी लोकगीत-नृत्य महज मनोरंजन का ही जरिया नहीं हैं, बल्कि वह लोकजीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेने की प्रेरणा भी देते हैं। हालांकि, समय के साथ बहुत से लोकगीत-नृत्य विलुप्त हो गए, लेकिन बचे हुए लोकगीत-नृत्यों की भी अपनी विशिष्ट पहचान है। उत्तराखंड में लगभग दर्जनभर लोक विधाएं आज भी अस्तित्व में हैं, जिनमें चैती गीत यानी चौंफला, चांचड़ी और झुमैलो जैसे समूह में किए जाने वाले गीत-नृत्य आते हैं। उत्तराखंड से जुडी कई रहस्य्मयी ख़बरों पर हम पहले भी बात कर चुके है जो आप हमारी लगातार चल रही पोस्टों के माध्यम से देख सकते है लेकिन आज इस पोस्ट में बात करेंगे उत्तराखंड के लोकनृत्य के बारे में और साथ ही साथ ये भी जानेंगे की कौन सा नृत्य कब और क्यों किया जाता है।
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उत्तराखंड के लोकनृत्यों के प्रकार –
तांदि नृत्य :यह नृत्य उत्तरकाशी और टिहरी जिलों में किसी विशेष ख़ुशी के अवसर एवं माघ के महीने में किया जाता है। इस नृत्य के साथ में गाये जाने वाले गीत तत्कालिक घटनाओं, प्रसिद्ध व्यक्तियों के कार्यो पर रचित होता है।
झुमैलो: झुमैलो सामूहिक नृत्य है, जो बिना वाद्ययंत्रों के दीपावली और कार्तिक के महीने में पूरी रात किया जाता है। गीत की पंक्तियों के अंत में झुमैलो की आवृत्ति और नृत्य में झूमने की भावना या गति का समावेश होने के कारण इसे झुमैलो कहा गया है। एक तरह से यह नारी हृदय की वेदना और उसकेप्रेम की अभिव्यक्ति है। इसमें नारी अपनी पीड़ा को भूल सकारात्मक सोच के साथ गीत एवं संगीत की सुर लहरियों पर नृत्य करती है
छोपती नृत्य : यह नृत्य भी मुख्य रूप से गढ़वाल क्षेत्र में किया जाता है यह प्रेम और रूप की भावना से युक्त स्त्री पुरुष का सयुंक्त नृत्य है। यह नृत्य सवांद प्रधान है।
चांचरी (चांचड़ी): यह संस्कृत से लिया गया शब्द है, जिसका अर्थ है नृत्य ताल समर्पित गीत। मूलत: यह कुमाऊं के दानपुर क्षेत्र की नृत्य शैली है, जिसे झोड़े का प्राचीन रूप माना गया है। इसमें भी स्त्री-पुरुष दोनों सम्मलित होते हैं। इसका मुख्य आकर्षण रंगीन वेशभूषा व विविधता है। इस नृत्य में धार्मिक भावना की प्रधानता रहती है।
घुघुती नृत्य : यह नृत्य छोटे बच्चों के मनोरंजन के लिए किया जाता है।
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भगनौल नृत्य :यह नृत्य कुमाऊँ क्षेत्र में मेलो के अवसर पर किये जाते है जिसमे मुख्य वाद्य यंत्र हुडका और नगाड़ा होता है।
भैला – भैला नृत्य :गढ़वाल क्षेत्र में यह नृत्य दीपावली के दिन भैला बांध के किया जाता है।
रणभूत नृत्य :गढ़वाल क्षेत्र में युद्ध वीरगति प्राप्त करने वाले योद्धाओ को देवताओं के समान आदर दिया जाता है। उनकी आत्मा की शांति के लिए उनके परिवार के लोग रणभूत नृत्य करते है। इस नृत्य को देवता घिराना भी कहते है। कफू चौहान, माधो सिंह भण्डारी, कैंतुरा राणातौत और कालू भण्डारी आदि मुख्य रणभूत है।
सिपैया नृत्य :गढ़वाल क्षेत्र में यह नृत्य देश प्रेम की भावना से ओत – प्रोत होता है। इस नृत्य से युवकों में देश के प्रति प्रेम में वृद्धि होती है।
थड़िया नृत्य : गढ़वाल क्षेत्र में वसंत पंचमी से बिखोत (विषुवत संक्रांति) तक विवाहित लड़कियों द्वारा घर के थाड़ (आँगन) में थड़िया गीतों के साथ नृत्य किया जाता है। जिसको थड़िया नृत्य कहा जाता है। यह नृत्य प्रायः उन विवाहित लड़कियों द्वारा किया जाता है जो पहली बार मायके आती है।
सरौं व पौंणा: गढ़वाल में सरौं, छोलिया और पौंणा नृत्य प्रसिद्ध हैं। तीनों की शैलियां अलग-अलग हैं, लेकिन वीर रस एवं शौर्य प्रधान सामाग्री का प्रयोग तीनों में ही किया जाता है। सरौं नृत्य में ढोल वादक मुख्य किरदार होते हैं, जबकि छोलिया और पौंणा नृत्य को वादक एवं नर्तक के साझा करतब पूर्णता प्रदान करते हैं। इन नृत्यों में सतरंगी पोशाक, ढोल-दमाऊ, नगाड़ा, भंकोरा, कैंसाल, रणसिंगा और ढाल-तलवार अनिवार्य हैं।
हारुल: महाभारत की गाथा पर आधारित यह जौनसार का प्रमुख लोकनृत्य है। जौनसार क्षेत्र में पांडवों का अज्ञातवास होने के कारण यहां उनके कई नृत्य प्रसिद्ध हैं। इस नृत्य में रामतुला (वाद्ययंत्र) बजाना अनिवार्य होता है।
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बुड़ियात लोकनृत्य : यह नृत्य भी जौनसारी समाज का एक लोक नृत्य है। जिसे जन्मोत्सव, शादी – विवाह और शुभ मांगलिक कार्यो में किया जाता है।
मण्डाण नृत्य : यह नृत्य मुख्यतः टिहरी और उत्तरकाशी जनपदों में देवी – देवता पूजन, देव जात और शादी – विवाह के मौके पर किया जाता है। चार तालों में किया जाने वाले इस नृत्य में शरीर के हर अंग का इस्तेमाल होता है। इस नृत्य को करने के लिए एकाग्रता की बहुत आवश्यकता होती है। इस नृत्य का अंत ‘चाली’ और भौंर से होती है। इस नृत्य को केदार नृत्य के नाम से भी जाना जाता है।
पंडावर्त: पांडवों से जुड़ी घटनाओं पर आधारित पंडावर्त शैली के लोकनृत्य वास्तव में नृत्य नाटिका के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। ये लोकनृत्य 20 लोक नाट्यों में 32 तालों और सौ अलग-अलग स्वरलिपि में आबद्ध होते हैं। पांडव नृत्य पांच से लेकर नौ दिन तक का हो सकता है, जिसमें कई पात्र होते हैं।
लंगविर नृत्य : यह पुरुषों द्वारा किया जाने वाला नट नृत्य है। इसमें पुरुष खम्बे के शिखर में चढ़कर उसी पर संतुलन बनाकर ढोल नगाड़ो पर नृत्य करता है।
चौंफला नृत्य : यह गढ़वाल क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों द्वारा एक साथ या अलग अलग टोली बनाकर किया जाने वाला यह श्रंगार भाव प्रधान नृत्य है। ऐसा कहा जाता है इस नृत्य को पार्वती ने शिव को प्रसन्न करने के लिए किया था। इसमें किसी वाद्य यंत्र का प्रयोग न हो कर हाथों की ताली, पैरों की थाप, झांझ की झंकार, कंगन व पाजेब (पैर में पहना जाने वाला आभूषण) की समुधुर ध्वनियों में नाचा जाता है। इस नृत्य में पुरुष नर्तकों को चौफुला तथा स्त्री नर्तकों को चौफलो कहा जाता है।
नाटी: यह देहरादून जिले की चकराता तहसील का पारंपरिक नृत्य है। जौनसार क्षेत्र के हिमाचल प्रदेश से जुड़े होने के कारण यहां की नृत्य शैली भी हिमाचल से काफी मिलती-जुलती है। महिला-पुरुष रंगीन कपड़े पहनकर इस नृत्य को करते हैं।
इस पोस्ट में हमने आप से उत्तराखंड के लोकनृत्य की जानकारी साझा की और साथ ही साथ उनके प्रकारों पर भी प्रकाश डाला। यदि हमसे कोई लोकनृत्य रह गया हो या फिर आप चाहते हो की हम किसी और विषय में आपको जानकारी प्राप्त करवाए तो नीचे कमेंट में जरूर लिंखे।
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