उत्तराखंड देवताओं, नागों और गंधर्वों की भूमि है और शिव यहाँ के आराध्य हैं। यहाँ बहुत से देवी, देवताओं के मंदिर हैं जिनका देवभूमि की संस्कृति में गहरा महत्त्व है और यही वजह है की इन देवी, देवताओं की झलक यहाँ के रीति रिवाजों में भी देखने को मिलती है। पर क्या आप जानते हैं कि भगवान बद्री और केदार की इस भूमि में देवताओं के आलावा नागों को भी पूजा जाता है। जिस स्थान को कहा जाता है उत्तराखण्ड का पांचवा धाम।
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देवभूमि उत्तराखंड जिसे बद्री केदार ने अपना निवास स्थान बनाया, तो वहीं माँ नंदा यहां की अधिष्ठात्री देवी बनी। लेकीन इस पवित्र भूमि में एक ऐसा मंदिर जो कि भगवान श्री कृष्ण की बाल लीला के एक अध्याय का कराता है साक्षात वर्णन। देवभूमि के टिहरी जिले की तहसील प्रताप नगर मैं स्थित है सेम मुखेम नागराज का भव्य मंदिर। नागराज का अर्थ है नागों के राजा । “सेम मुखेम नागराज मंदिर” देवभूमि उत्तराखंड का पांचवा धाम व उत्तर धाम के नाम से भी जाना जाता है।
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लोक मान्यताएं-
सेम मुखेम नागराजा मंदिर को लेकर कई तरह की धार्मिक मान्यताएं प्रचलित हैं कहा जाता है कि जब भगवान श्री कृष्ण बाल रूप में लीलाएं कर रहे थे। तो उस समय यमुना नदी में गिरी गेंद को निकालने के लिए उन्होंने कालिया नाग को हराया और फिर कालिया नाग को आदेश दिया कि वह सेम मुखेम में जाकर निवास करें। जिसके बाद कालिया नाग सेम मुखेम में आकर रहने लगे। कहा जाता है कि जब काफी समय व्यतित करने के बाद कालिया नाग ने भगवान श्रीकृष्ण को दर्शन देने की विनती करी थी। जिसके बाद अंत में भगवान श्री कृष्ण द्वारिका छोड़ उत्तराखंड के रामोलगद्दी में आकर कालिया नाग को दर्शन दिए और हमेशा के लिए वहीं पत्थर पर विराजमान हो गए। क्षेत्र के लोगों मान्यता है कि भगवान श्री कृष्ण का एक अंश अभी भी उस पत्थर में विद्यमान है और सभी की मनोकामना पूर्ण करता है।
समुद्रतल से करीब 7000 फ़ीट की ऊँचाई और मुखेम गाँव से 2 किमी की दूरी पर अपनी धार्मिक मान्यताओं और प्राकृतिक सौंदर्य के लिए श्रद्धालुओ के बीच प्रसिद्ध मंदिर का शुरुआती सुंदर द्वार 14 फुट चौड़ा तथा 27 फुट ऊँचा है। जिसमें नागराज फन फैलाये है और लीलाधर कृष्ण नागराज के फन के ऊपर बंसी की धुन में लीन है। वहीं आगे चलकर मंदिर के गर्भगृह में नागराजा की स्वयं भू-शिला है जिसे द्वापर युग का बताया जाता है। मंदिर में गंगू रमोला के परिवार की मूर्तियाँ भी विराजमान है और सेम नागराजा की पूजा से पहले गंगू रमोला की पूजा इस मन्दिर में की जाती है।
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कहते हैं कि, द्वापर युग में इस स्थान पर रमोली गढ़ के गढ़पति गंगू रमोला का राज हुआ करता था। एक बार श्रीकृष्ण ब्राह्मण वेश में गंगू रमोला के पास आए और उनसे मंदिर के लिए जगह मांगी, लेकिन गंगू ने मना कर दिया। इससे नाराज भगवान श्रीकृष्ण पौड़ी चले गए। श्रीकृष्ण के लौटते ही गंगू के राज्य पर विपदा आ गई। गंगू की पत्नी धार्मिक स्वभाव की थी और वो तुरंत इसका कारण समझ गई। जिसके बाद में गंगू रमोला ने भगवान श्रीकृष्ण से मांफी मांगी, गंगू की विनती के बाद भगवान यहीं बस गए। आज
पहाड़ों में देवी देवताओं को अर्पित पद यात्राएं विशेष महत्व रखती है। इन यात्राओं में सबको रिझाने की शक्ति होती है। सेम मुखेम नागराज की भी हर 3 साल में एक भव्य पद यात्रा निकलती है और साथ ही एक मेले का आयोजन भी होता है। लोगों की आस्था के प्रतीक इस मन्दिर में लोग काल सर्प दोष से मुक्ति पाने के लिए भी आते हैं। वहीं इस दिव्य शक्ति के मंदिर में नाग-नागिन का जोड़ा चढ़ाने की परंपरा है जिसका अपना एक अलग महत्व है।
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कहते है जब भगवान श्री कृष्ण हिमालय में प्रवास कर रहे थे। तो उस दौरान उनका सामना हिमा नाम की एक राक्षसी से हुआ। जहां उन्होंने उस राक्षसी के सामने झूला झूलने का प्रस्ताव रखा। जिस पर राक्षसी ने भी झूला झूलने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।कहा जाता है कि जिस जगह झूला झूला गया था उस स्थान पर आज भी एक विशालकाय पत्थर है जिसे स्थानीय भाषा में डांगढूंगी कहा जाता है। जो केवल हाथ की छोटी उंगली (कनिष्ठा) से हिलाया जा सकता है। जब भगवान श्री कृष्ण ने हिमा को झूला झुलाया और बहुत जोर से धक्का दिया तो राक्षसी के शरीर के कई टुकड़े हुए। जो अलग-अलग स्थानों पर जा गिरे। हिमा का मुंह जहां गिरा वह मुखेम के नाम से प्रचलित है, जबकि जहां पर पेट वाला भाग हिस्सा गिरा उस स्थान को तलबला कहा गया और आज तलबला सेम की खासियत यह है कि यहां की भूमि पेट की भांति कोमल और हिलती हुई महसूस होती है।
कैसे पहुंचे मन्दिर
सेम मुखेम नागराज मंदिर में दर्शन के लिए यात्री नई टिहरी या उत्तराकाशी होते हुए पहुंच सकते हैं। तलबला सेम तक श्रद्धालु मोटर मार्ग की सहायता से आ सकते हैं। जिसके बाद लगभग 3 किलोमीटर की पैदल मार्ग यात्रा जो सुंदर वनों से ढकी है उसे तय करने के बाद नागराज के इस दिव्य मन्दिर में पहुंचा जा सकता है।