2013 में असमय मौत के मुह में गए हर शख्श को श्रद्धासुमन अर्पित करते हुए एक सवाल उठता है हम कितना सम्भले और कितना सुधरे?
आस्था और विज्ञान तब मुह खोल कर सिर्फ खड़ा देखता रहा जब बात समझाने के लिये उसने बस कुछ समय की वर्षा और चन्द पलो की बाढ़ मंदाकिनी में लाकर सबकी सांसे गले मे अटका दी थी। ये उनका इशारा था। जिसमे वो ये कह रहे थे कि कम से कम मेरी जगह पर ये सब मत करो। ये तीर्थाटन है इसे पर्यटन न बनाओ। भक्ति भाव से आये हो आओ दर्शन करो और जाओ। ये कोई पिकनिक स्पॉट नही है, जिसमे तुम बेमतलब का हो हल्ला चीख पुकार करो। ऐसा करना उनके तप में खलल डाल सकता है। और स्वाभाविक है किसी का भी ध्यान भंग करोगे तो वो क्रोधित होगा ही। अब यहां पर बड़ी डिग्री वाले बुद्धिजीवी एक प्रश्न करते है कि वहां लोग आस्था के लिए आशिर्वाद प्राप्त करने गए थे, भगवान अपने भक्तो पर ही क्यों क्रोधित होंगे। उसकी भक्ति करने वाले को क्यों मौत के मुह में भेजेंगे? नास्तिकता के हिसाब से अगर ये सब चीजे ये आस्था, भक्ति, शक्ति, रीति-नीति, नियम अगर मानने वाली चीजे नही है तो फिर उस तरफ जाना ही क्यों? उस जगह से दूरी बना लेने में क्या दिक्कत है, उल्टा हम अपनी मनमर्जी से आस्था के पथिकों का रास्ता क्यों खराब करे? आस्था पथ पर चले व्यक्ति को कही न कही हमारी बेमतलब की प्रकृति के साथ की गयी छेड़छाड़ उसे भी ले डूबती है। क्योंकि प्रश्न का उत्तर मिलने के बाद भी अगर हम भूल जाते है तो फिर प्रकृति याद दिलाना जानती है।
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अब इस बात को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से भी कहा जा सकता है, उच्च हिमालय में उसके इको सिस्टम पर हमारी हरकतों की वजह से जो बुरा असर पड़ रहा है, उसका खामियाजा हमे ही भुगतना है। आसान भाषा मे समझिये कि हिमालय का जन्म कुछ लाख वर्ष पहले ही हुआ है। वो अभी बाल्यकाल में है और अभी भी बन रहा है। उसकी बनावट और परिपक्वता के दौरा में उसके मूल भूत तत्व में की गई छेड़ छाड़ कही न कही उसके बनने के रास्ते मे गड़बड़ी पैदा कर सकती है। जिसका खामियाजा हमे ही भुगतना है। पूरे राज्य के भौगोलिक ढांचे पर ध्यान दे तो विकास के नाम पर बेतरतीब तरीके से किया अन्धाधुन्ध निर्माण भविष्य की पीढ़ी के लिए किसी प्रलय से कम नही होगा। सड़क निर्माण हो या कोई भी अन्य निर्माण, इस में पुराने विकल्पों को अपनाने की बजाय हम बुल्डोजर और डाइनामाइट का जहां मर्जी वहां इस्तेमाल करते है। हमारा विकास तो हो जाता है, हम जहां तक चाहते है सड़क वहां तक पहुच जाती है पर उस के नीचे भूगर्भ में कितना परिवर्तन हुआ, ये हमे अगली बरसात में पता चल जाता है। पलायन का रोना रोने वाले और तरक्की का मायना नजदीकी कस्बे में 50 गज की समतल जमीन पर बस जाने वाले, ये क्यों नही समझ रहे कि जिस समतल जमीन पर उन्होंने देखा देखी में घर बनाया है, वो किसी न किसी नदी का रनिंग चैनल है, यानी 100 साल में कभी न कभी नदी अपने मूल मार्ग पर पूरे वेग से बहेगी। और उस बहाव के दौरान उस के रास्ते में जो आएगा वो सब मटियामेट होगा। यानी हम अपनी अगली पीढ़ी को तरक्की का नाम देकर प्रलय या मौत के मुह के करीब खड़ा कर रहे है। ये विकास नही है ये जानबूझ कर प्रकृति को चुनौती देना है।
‘काफल पाको मैं नि चाखो’ की कहानी बयां करता है ये गीत
नदियों के रास्ते मोड़ना, या उनके बहाव पर रोक लगाना, पिकनिक और हनीमून डेस्टिनेशन समझ कर हर जगह पर कूड़ा, गंदगी, अपने मनोरंजन के लिए जल स्रोतों, बुग्यालों, उच्च हिमालयी क्षेत्र की सेंसटिव जगहों पर जाकर मनमर्जी से उन्हें प्रदूषित करना कही न कही हमारी गिरती मानसिकता का परिचायक है। भौतिकता की अंधी दौड़ उत्तराखंड को अंदर से इतना खोखला कर चुकी है कि उसकी ऊपरी परत कभी भी बिखर सकती है। और इस बात पर ध्यान न सरकार का है, न ही आम जन का। पर्यटकों को सिर्फ कमाई का जरिया समझने की वजह से भी उन्हें जो मर्जी वो करने की छूट देने की गलती बहुत भारी पड़ सकती है। और शायद अगला 16 जून, हमे 2013 के 16 जून से भी भारी पड़े।
सम्भलना अभी पड़ेगा, आखों को सुकून देने वाले जंगलो में अंदर झांकिए उनके अंदर कितना प्लास्टिक कितना कांच और कितना कचरा भर गया है, ये देखने की जरूरत है। बेमौसम में होता मौसम परिवर्तन इस बात का गवाह है कि राज्य की इकोलॉजी पर हमारी स्वार्थ सिद्धि से कितना बुरा असर पड़ा है। नदियों के रास्ते में बसावट, जंगलो की आग, अन्धाधुन्ध पेड़ो का कटाव, और बेतरतरीब तरीके से बिना प्लांनिग का निर्माण आने वाले समय में उत्तराखंड को पूर्णतया समाप्त करने के लिए आज फिट किया टाइम बम है, जो भविष्य में जब फटेगा तो फिर हम उसे दैवीय आपदा का नाम देकर पल्ला नही झाड़ पाएंगे।
याद रखिये
इंसान को भूलने की आदत है और प्रकृति को उसे याद दिलाने की दवा पता है।
प्रदीप लिंग्वाल
रेडियो खुशी 90.4FM (GNFCS मसूरी) से।