पहाड़ों मे अब विलुफ्त होती जा रही ‘घराट’, एक समय जिस पर निर्भर था पूरा पहाड़

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पहाड़ों मे अब विलुफ्त होते जा रही 'घराट', एक समय जिस पर निर्भर रहता था पूरा पहाड़

पहाड़ी संस्कृति और वहां के लोगों के बीच मिठास घोलने वाली घराट, अब बदलते समय के साथ उत्तराखंड में कम ही नजर आती है, उत्तराखंड में घराट एक पारंपारिक तकनीकी के रूप में मानी गई, आज अपने इस पोस्ट के माध्यम से हम 500 साल से अधिक पुरानी इस तकनीक के बारे बात करेंगे और बताएंगे किस तरह हमारे पूर्वजों द्वारा इसका इस्तेमाल किया गया.

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राज्य में सर्वप्रथम चंद शासनकाल के 1514 के ताम्रपत्र में घराटों (पनचक्कियों) का उल्लेख मिलता है, घराटों पर सर्वप्रथम कर (किराया) बैकेट के समझौते पर 1842 (कमिश्नर लूसिंगटन के कार्यकाल) से लिया गया,लेकिन प्रारम्भ में घराट व्यक्तिगत सम्पति थी जिसपे कर नही लिया जाता था, आप में से कई लोगो को शायद इसके बारे पता ना हो उन्हें बता दें कि घराट यानी पहाड़ की वो चक्की जाे बिजली नहीं पानी के वेग से गेहूं पीसती है, पहाड़ के निचले हिस्से में पत्थरों से छाए हुए एक छोटे झोपड़ीनुमा कमरे में मैन्युअल सेटपअ के ऊपरी हिस्से पर नाले से आती हुई पानी की तेज धारा टकराती है तो गेहूं पीसने के लिए पत्थर की चक्की गति से घूमने लगती है.

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पहाड़ी परिवारों में घराट के आटे से बनी रोटियोॆ का स्वाद चक्की से आटे से अलग होता है, पहाड़ी लोग जहां एक समय घराट का आटा पसंद करते थे, घराट में पिसा आटा हमारे पाचन तंत्र के लिए सबसे अच्छा माना गया है, इसके कई आयुर्वेद फायदे भी हैं, लेकिन अब समस्या यह है कि बदलते समय में पहाड़ी लोगों की पसंद में अब बदलाव आ गया है, अब लोग इलेक्ट्रॉनिक चक्की का आटे का सेवन करने लगे हैं.

दूसरे मायने में इन घराटों का अस्तित्व मिटने का सबसे बड़ा कारण पानी की आपूर्ति भी मानी गई, साथ ही अत्याधुनिक मशीनों के निर्माण होने से भी इन पर संकट आए, कई बार ग्रमीण अंचलों में घराटों को पुनर्जीवित करने की कोशिश जरूर की गई लेकिन वो साकार न हो सकी.

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