कल्पनाओं के उस अतल सागर में जहाँ देवताओं ने धरती पर अपने चरण धरे, वहीं जन्म लिया एक पावन भूखंड ने, जिसे पुरातन काल में केदारखण्ड के नाम से जाना जाता था। यह भूमि दक्षिण में गंगाजल की प्रथम धार हरिद्वार से लेकर, उत्तर में हिमराशि से आच्छादित श्वेत शृंगों तक, पूर्व में बौद्ध ध्यानस्थलों से लेकर पश्चिम में तमसा की मौन कलकल धारा तक अपनी विराट उपस्थिति का आभास कराती रही।
गढ़वाल – एक अर्थ, एक आत्मा
‘गढ़वाल’ मात्र कोई नाम नहीं, अपितु एक जीवन्त प्रतीक है—वीर गढ़ों की भूमि, जहाँ हर एक खंड में इतिहास की गूंज समाई हुई है। ‘गढ़’ शब्द उन प्राचीन दुर्गों का स्मरण कराता है, जो इस पावन धरती के कण-कण में बसी वीरगाथाओं और लोकगाथाओं के मौन साक्षी हैं। इन्हीं किलों ने गढ़वाल को उसकी आत्मा दी—एक ऐसी आत्मा जो आज गढ़ों की भूमि कहलाई जाती है।

वहीं जब समय के प्रवाह में छोटे-छोटे पर्वतीय रजवाड़े अपनी सीमाओं में सिमटे थे, तब पंवार वंश के अधिष्ठाता, महानायक अजय पाल ने इस टुकड़ों में बंटी भूमि को एकीकृत कर एक सशक्त राज्य का स्वरूप प्रदान किया। उनकी यह दूरदृष्टि और पराक्रम ही था, जिसने इस हिमखंड को —गढ़वाल की पहचान दी।
गढ़वाल : सभ्यता
इस पावन भूमि की घाटियों में जिस तरह देवता स्वयं आसन लगाए बैठे हैं, ठीक वैसे ही गढ़वाल के हिमखंड अपने आध्यात्मिक वैभव, सांस्कृतिक विरासत, नैसर्गिक सुंदरता और ऐतिहासिक गौरव के साथ मानव सभ्यता की अनवरत यात्रा के गवाह रहे हैं। इस भूखंड के चमोली जनपद में स्थित गुरख्या उड्यार और कीमनी उह्ययार जैसे स्थल उन आद्य मानवों के मौन किंतु दृढ़ साक्ष्य हैं। उस समय गढ़वाल और कुमाऊं को एक व्यापक सांस्कृतिक नाम से जाना जाता था—ब्रह्मपुरी।

कत्यूरी शासन
सातवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी के प्रारंभ तक, हिमालय की गोद में स्थित गढ़वाल और कुमाऊं की पर्वतीय भूमि कत्यूरी राजवंश के अधीन रही। प्रारंभ में उनकी राजधानी कार्तिकेयपुरी (आधुनिक जोशीमठ) थी, किंतु समय के साथ इसे बैजनाथ (कुमाऊँ क्षेत्र) स्थानांतरित कर दिया गया। इस दौरान गढ़वाल का क्षेत्र धीरे-धीरे एकीकृत शासन व्यवस्था से विखंडित होकर स्वयं-शासित छोटे-छोटे गढ़ों में विभाजित हो गया।

इस काल में आदि गुरु शंकराचार्य ने देवभूमि के विख्यात धामों की स्थापना की।


पंवार वंश
गढ़वाल का राजवंश कनक पाल से प्रारंभ हुआ। कुछ इतिहासकार इसे 823 ईस्वी के आसपास मानते हैं, जब मालवा (वर्तमान मध्य प्रदेश) के एक राजकुमार बद्रीनाथ यात्रा पर गढ़वाल आए। इस यात्रा के दौरान उनका परिचय चांदपुर गढ़ी के वीर राजा भानु प्रताप से हुआ। राजा ने अपनी इकलौती पुत्री का विवाह कनक पाल से कर दिया और उन्हें अपना गढ़ सौंप दिया।

धीरे-धीरे पंवार वंश ने 52 गढ़ों पर अपना आधिपत्य स्थापित किया और अगले 916 वर्षों तक, यानी 1804 तक, गढ़वाल पर शासन किया।
इस बीच पंवार वंश के 37वें शासक अजय पाल ने गढ़वाल साम्राज्य को संगठित किया। पहले राजधानी देवलगढ़ में थी, जिसे बाद में उन्होंने श्रीनगर (श्रीयंत्र) स्थानांतरित किया।


पंवार वंश के 46वें शासक महिपत शाह की मृत्यु के बाद उनकी पत्नी रानी कर्णावती, जिन्हें ‘नकटी रानी’ भी कहा जाता है, ने शासन संभाला।

गढ़वाल के 51वें शासक प्रदीप शाह (1709–1772) के शासनकाल में नेपाल की गोरखा सेना ने कुमाऊँ पर आक्रमण किया और बाद में गढ़वाल पर भी। गोरखाओं ने लगभग 12 वर्षों तक गढ़वाल पर शासन किया।

पंवार वंश के 55वें शासक सुदर्शन शाह को पश्चिमी गढ़वाल तक सीमित क्षेत्र मिला। चूंकि श्रीनगर ब्रिटिश शासन में आ गया था, उन्होंने टिहरी को नई राजधानी बनाया।
स्वतंत्रता और एकीकरण
1947 में देश की आज़ादी के बाद, टिहरी रियासत के निवासियों ने महाराजा नरेंद्र शाह के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। उनके उत्तराधिकारी मनबेंद्र शाह ने 1949 में टिहरी रियासत को भारत संघ में मिला दिया। इसके साथ ही यह रियासत उत्तर प्रदेश के गढ़वाल जिले में सम्मिलित हो गई और टिहरी गढ़वाल नामक नया जिला अस्तित्व में आया।

गढ़वाल का प्रशासनिक विकास
1960 तक गढ़वाल में केवल दो प्रशासनिक इकाइयाँ थीं: पौड़ी गढ़वाल और टिहरी गढ़वाल। 24 फरवरी 1960 को सीमावर्ती क्षेत्रों के बेहतर प्रबंधन हेतु चमोली और उत्तरकाशी को अलग जनपद के रूप में गठित किया गया।
वर्ष 1970 में जब गढ़वाल मंडल की स्थापना हुई, तो 1975 में देहरादून ज़िले को भी इसमें शामिल कर लिया गया। इसके पश्चात 1997 में रुद्रप्रयाग को स्वतंत्र जनपद का दर्जा दिया गया।

गढ़वाल का इतिहास – आत्मा की यात्रा
गढ़वाल का इतिहास केवल राजाओं और युद्धों की गाथा नहीं है। यह यहाँ के लोगों की मेहनत, आस्था और आत्मसम्मान का प्रतिबिंब है। यहाँ की नदियाँ, पर्वत, मंदिर, लोकगीत और रीति-रिवाज़ मिलकर एक ऐसी जीवंत संस्कृति रचते हैं, जो समय के साथ और भी समृद्ध होती चली गई। पीढ़ियाँ बदलती रहीं, शासन बदले, जिले बने, लेकिन गढ़वाल की आत्मा सदैव अडिग रही—शांत, दृढ़ और प्रेरणादायक। यही गढ़वाल की असली पहचान है, जो हर गढ़वाली के दिल में बसती है।