उत्तराखंड की संस्कृति जितनी समृद्ध है, उतने ही मन को मोहने वाले यहां के लोकगीत-नृत्य भी हैं। यहां लोक की विरासत समुद्र की भांति है, जो अपने आप में विभिन्न रंग और रत्न समेटे हुए है। हालांकि, वक्त की चकाचौंध में अधिकांश लोकनृत्य कालातीत हो गए, बावजूद इसके उपलब्ध नृत्यों का अद्भुत सम्मोहन है। ऐसे में अब यहां के गायक अपने गीतों के माध्यम से इस कला को संजोएं रख रहें है।
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उत्तराखंडी लोकजीवन अलग ही सुर-ताल लिए हुए है, जिसकी छाप यहां के लोकगीत-नृत्यों में भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। उत्तराखंडी लोकगीत-नृत्य महज मनोरंजन का ही जरिया नहीं हैं, बल्कि वह लोकजीवन के अच्छे-बुरे अनुभवों से सीख लेने की प्रेरणा भी देते हैं। हालांकि, समय के साथ बहुत से लोकगीत-नृत्य विलुप्त हो गए, लेकिन बचे हुए लोकगीत-नृत्यों की भी अपनी विशिष्ट पहचान है। उत्तराखंड में लगभग दर्जनभर लोक विधाएं आज भी अस्तित्व में हैं, जिनमें चैती गीत यानी चौंफला, चांचड़ी और झुमैलो जैसे समूह में किए जाने वाले गीत-नृत्य आते हैं। उन्हीं में एक नृत्य है तादी और मंडान।
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तांदी और मंडाण जैसे खूबसूरत नृत्य का जिक्र किया है गायक VIRENDRA BISHT ने जिन्होंने अपने गीत का टायटल भी ” तांदी मंडान “ रखा है। जिसे बेहतरीन संगीत V CASH और PRADEEP ने दिया है। आइए जानते है क्या है तांदी और मंडाण।
तांदी: उत्तरकाशी और टिहरी जिले के जौनपुर क्षेत्र में तांदी नृत्य खुशी के मौकों और माघ के पूरे महीने में पेश किया जाता है। इसमें सभी लोग एक-दूसरे का हाथ पकड़कर श्रृंखलाबद्ध हो नृत्य करते है। इस नृत्य के साथ गाए जाने वाले गीत सामाजिक घटनाओं पर आधारित होते हैं, जिन्हें सामूहिक रूप से रचा जाता है। विशेषकर इनमें तात्कालिक घटनाओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के कार्यों का उल्लेख होता है।
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मंडाण: उत्तराखंड के प्राचीन लोकनृत्यों में मंडाण सबसे ज्यादा लोकप्रिय है। शादी-ब्याह अथवा धार्मिक अनुष्ठानों के मौके पर गांव के खुले मैदान (खलिहान) या चौक के बीच में अग्नि प्रज्ज्वलित कर मंडाण नृत्य होता है। इस दौरान ढोल-दमौ, रणसिंगा, भंकोर आदि पारंपरिक वाद्यों की धुनों पर देवी-देवताओं का आह्वान किया जाता है। इसमें ज्यादातर गीत महाभारत कालीन प्रसंगों पर आधारित होते हैं। इसके अलावा लोक गाथाओं पर आधारित गीत भी गाए जाते है। देखा जाए तो यह पंडौं नृत्य का ही एक रूप है।
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