क्रिएटिव पांडवाज की शार्ट फिल्म ‘यकुलाँस ‘ क्या कहती है ,पढ़ें रिपोर्ट।

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उत्तराखंड एक पहाड़ी राज्य है जाहिर है समस्याएं भी पहाड़ जितनी ही जटिल होंगी,रोजगार,शिक्षा,स्वास्थ्य जैसी समस्याएं तो पहले से ही थी लेकिन बीते कुछ समय से देवभूमि पलायन की समस्या से भी ग्रसित है,गाँव के गाँव खाली हो चुके हैं रह गए हैं तो बस बंजर खेत और अपनों की राह देखते उजड़े मकान जिनका इंतजार अभी ख़त्म नहीं हुआ तो शायद आगे और भी गाँव इसी हालात में मिलेंगे,उत्तराखंड में एक नाम है ‘पांडवाज क्रिएशन’ जो अपनी रचनात्मकता से सबका दिल जीत लेता है बेहतरीन संगीत के साथ ही सामाजिक मुद्दों को भी अब कलात्मक अंदाज में दर्शा रहे हैं,हाल ही में पलायन पर बनी शार्ट फिल्म ‘यकुलाँस’ रिलीज़ हुई है जो पलायन के दर्द को बखूबी बयां कर रही है। 

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चलिए शुरू से शुरू करते हैं शार्ट फिल्म का शीर्षक है यकुलाँस जोकि एक गढ़वाली शब्द है जिसका अर्थ होता है ‘अकेलापन’अब ये मजबूरी में हुआ है या सुखः सुविधाओं की खातिर छोड़ चुके अपनों ने दिया है,पांडवाज की ये शार्ट फिल्म दर्शाती है एक ऐसे ही बुजुर्ग व्यक्ति की जो अब गाँव में अकेला हो चुका है या यूँ कहें ‘घोस्ट ऑफ़ विलेज’ हो चुका है,जिसका न सुखः में कोई साथी है ना दुःख में बस अपने काम-काजों एवं पालतू जानवरों के अलावा और उन वीरान पहाड़ों के अलावा और कोई उसकी आवाज सुनने वाला तक नहीं है।

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पलायन के इस दर्द ‘यकुलाँस’ की स्क्रिप्ट रचना और निर्देशन पांडवाज बंधु कुणाल डोभाल ने किया है,फिल्मांकन सलिल डोभाल,कला निर्देशन प्रेम मोहन डोभाल,संगीत ईशान डोभाल ने दिया है।शार्ट फिल्म में एक कविता कहें या गीत है जो पूरी कहानी का मुख्य बिंदु है इसकी रचना जगदम्बा चमोला एवं प्रेम मोहन डोभाल ने की है।

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कहानी के मुख्य किरदार में किशन सिंह कुंवर हैं जो पूरे गाँव में इकलौते इंसान रह गए हैं और बाकी सब पलायन कर चुके हैं,वो देश दुनिया से इतने दूर हैं कि मोबाइल का सिग्नल भी ढूंढ़ने जाना पड़ता है।एक अकेले इंसान की कहानी और दर्द को कुणाल ने बेहद ही शानदार ढंग से रचा है,उत्तराखंड फिल्म के इतिहास में ‘यकुलाँस’ अब तक की इकलौती ऐसी फिल्म बन चुकी है जिसमें संवाद के नाम पर कुछ भी नहीं है लेकिन इसके पीछे का दर्द हर कोई समझ रहा है।जगदम्बा चमोला की कविता मुंगरयोट को पांडवाज ने नया जीवन दिया है,दीपा बुग्याली की खनक भरी आवाज आपको पहाड़ के वास्तविक लोकसंगीत की झलक दिखलाएगी।

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कहानी शुरुआत में किसी के पल्ले नहीं पड़ती लेकिन एक-एक सेकंड आगे बढ़ने पर आप इसमें समा जाते हैं और उस अकेले इंसान के दर्द को समझ सकते हैं,जिसके बच्चे अब उसे उसी के भरोसे छोड़ गए हैं लेकिन एक पिता का मन अपनी औलादों को कैसे भूल सकता है,बस निकल पड़ता है उनकी खैर खबर करने और ले जाता है उनके लिए गाँव की कुछ ‘समौण'(भेंट) जो उसने बड़ी मेहनत से उगाए हैं कि परदेश में उन्हें ये सब न मिल पाता होगा और क्या पता उन्हें इसका अहसास भी हो जाए कि हम क्या छोड़कर आ गए हैं लेकिन शहर पहुँच कर भी उसके नसीब में अपने बच्चों से मिलना नहीं हो पाता और एक सच्चे पहाड़ी के जैसे ही अनजान शहर में किसी पर भरोसा करके ठगा जाता है।और थक-हार कर लौट आता है फिर अपने यकुलाँस जीवन में।

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उत्तराखंड फिल्म एवं संगीत जगत में पांडवाज का नाम क्यों इतने फक्र से लिया जाता है ये आप इस शार्ट फिल्म को देखकर समझ जाएंगे। पांडवाज की ये चौथी टाइम मशीन है जो समय के साथ और भी आधुनिक हो चली है,देखिए दिल को छूने वाली ये शार्ट फिल्म।

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